भारत में ओलंपिक खेलों की अनदेखी – कब मिलेगा क्रिकेट जैसा सम्मान?


भारत एक ऐसा देश है जहाँ खेलों के प्रति दीवानगी है, लेकिन यह दीवानगी लगभग एकतरफा हो गई है – क्रिकेट तक सीमित। ओलंपिक खेलों में भारतीय खिलाड़ियों ने अद्भुत प्रदर्शन किया है, इसके बावजूद उन्हें वह पहचान, पैसा, और मीडिया कवरेज नहीं मिलती जो क्रिकेटरों को मिलती है। यह लेख इसी असमानता की गहराई से पड़ताल करता है और यह सवाल उठाता है कि क्या भारत में ओलंपिक खेलों को वह सम्मान कभी मिलेगा जो क्रिकेट को मिलता है?


1. ओलंपिक और क्रिकेट – तुलना की शुरुआत:

भारत में क्रिकेट को धर्म का दर्जा मिला हुआ है। हर गली, हर मोहल्ले में बच्चे बल्ला और गेंद लिए दिखाई देते हैं। वहीं ओलंपिक खेल जैसे कुश्ती, तीरंदाजी, बैडमिंटन, हॉकी, आदि को स्कूल स्तर से ही नजरअंदाज कर दिया जाता है। क्रिकेट को लेकर लोगों की जागरूकता और भावना जहाँ आसमान छूती है, वहीं ओलंपिक खेलों की चर्चा बस मेडल जीतने के दिन होती है।

भारत में क्रिकेट और ओलंपिक दर्शकों की संख्या की तुलना करती एक छवि।


2. सरकार और स्पॉन्सर्स की भूमिका:

क्रिकेट को स्पॉन्सर्स का बेशुमार समर्थन मिलता है – चाहे वह IPL हो, ICC tournaments हो या घरेलू लीग। वहीं ओलंपिक एथलीट्स अक्सर खुद के खर्चे पर ट्रेनिंग करने को मजबूर होते हैं। खिलाड़ियों को सही सुविधाएं, कोचिंग और पोषण तक नहीं मिल पाता। सरकार की योजनाएं जैसे TOPS (Target Olympic Podium Scheme) हैं तो सही, लेकिन उनका दायरा अभी भी सीमित है।


3. मीडिया कवरेज की असमानता:

क्रिकेट की हर छोटी खबर, हर अभ्यास मैच मीडिया की सुर्खियाँ बनती हैं। वहीं ओलंपिक खिलाड़ियों की उपलब्धियाँ तब ही दिखती हैं जब वे मेडल जीतकर लौटते हैं। मीडिया को बराबरी से कवरेज देनी चाहिए जिससे अन्य खेलों को भी पहचान मिले।


4. ब्रांड एंडोर्समेंट और आर्थिक स्थिति:

एक औसत क्रिकेटर को करोड़ों के ब्रांड डील मिलते हैं जबकि ओलंपिक मेडल विजेता को मुश्किल से कुछ लाख की स्कीम या एक दो सम्मान मिलते हैं। यह आर्थिक अंतर खिलाड़ियों के मनोबल और प्रेरणा को प्रभावित करता है।


5. शिक्षा व्यवस्था में खेलों की स्थिति:

भारत की शिक्षा प्रणाली में खेलों को ज्यादा महत्व नहीं दिया जाता, और अगर दिया भी जाता है तो वो भी सिर्फ क्रिकेट को। स्कूलों में फिजिकल एजुकेशन का मतलब सिर्फ क्रिकेट मैच होता है, जिससे अन्य खेलों के लिए कोई जगह नहीं बचती।

स्कूल के मैदान में केवल क्रिकेट खेलते बच्चे और एक कोने में पड़े ओलंपिक खेलों के उपकरण।



6. सफल ओलंपिक एथलीट्स की अनदेखी:

साक्षी मलिक, मीराबाई चानू, नीरज चोपड़ा जैसे नाम एक समय में देश की शान बनते हैं, लेकिन कुछ महीनों बाद लोग उन्हें भूल जाते हैं। इसके उलट क्रिकेटर वर्षों तक स्टार बने रहते हैं, चाहे उनका प्रदर्शन घटिया हो या बढ़िया।


7. सोशल मीडिया का प्रभाव:

क्रिकेटरों की सोशल मीडिया फॉलोइंग करोड़ों में होती है, वहीं ओलंपिक विजेताओं की पोस्ट भी वायरल नहीं होती। युवाओं के लिए रोल मॉडल वही बनते हैं जिन्हें वे दिन-रात स्क्रीन पर देखते हैं।


8. खेल संस्थाओं में राजनीति:

भारत में खेल संस्थाओं में राजनीति हावी है, जिससे ओलंपिक खेलों को उचित प्रतिनिधित्व नहीं मिल पाता। प्रशासनिक गड़बड़ियाँ, फंड में कटौती, और चयन में भेदभाव जैसी समस्याएँ हैं जो ओलंपिक खिलाड़ियों के भविष्य को प्रभावित करती हैं।


9. जनता की मानसिकता:

आम जनता क्रिकेट को ही खेल मानती है, बाकी खेलों को टाइम पास। यह मानसिकता बदलने की ज़रूरत है। टीवी चैनल्स, OTT, और सोशल मीडिया को बाकी खेलों को भी प्रमोट करना चाहिए।


10. समाधान की राह:

  • ओलंपिक खेलों को स्कूली पाठ्यक्रम में शामिल किया जाए।

  • हर जिले में बहु-खेल प्रशिक्षण केंद्र बनाए जाएँ।

  • खिलाड़ियों के लिए न्यूनतम आर्थिक सुरक्षा सुनिश्चित की जाए।

  • मीडिया और ब्रांड्स को निर्देशित किया जाए कि वे अन्य खेलों को प्रमोट करें।

  • जनभागीदारी बढ़ाई जाए जैसे क्रिकेट में होती है।

  • भारत का एक खेल प्रशिक्षण केंद्र जहाँ क्रिकेट के साथ-साथ ओलंपिक खेलों की भी कोचिंग हो रही है।




निष्कर्ष:

क्रिकेट की लोकप्रियता भारत के लिए गर्व की बात है, लेकिन बाकी खेलों की अनदेखी देश के प्रतिभावान खिलाड़ियों के साथ अन्याय है। ओलंपिक खेलों को भी वही प्यार, समर्थन, और प्लेटफ़ॉर्म मिलना चाहिए जो क्रिकेट को मिलता है। जब देश के सभी खेलों को बराबरी का दर्जा मिलेगा, तभी भारत एक सच्चा खेल राष्ट्र बन पाएगा।


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